पुलिस परिवार के दु:ख में गायब जनप्रतिनिधि, क्या-3 मासूमों की मौत का दर्द इन्हें दर्द नहीं लगा….!

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दो कर्मियों ने खोया इकलौता संतान, एक के छोटे पुत्र की जान गई

 सवालों के घेरे में संवेदनशीलता, क्या इंसानियत सिर्फ वोटों तक सीमित है?

एकमात्र कोरबा सांसद ज्योत्स्ना महंत ने जताई शोक संवेदना

कोरबा (आधार स्तंभ) :  5 सितंबर 2025 का दोपहर कोरबा पुलिस परिवार के लिए कभी न भूलने वाला दर्द लेकर आया। पुलिस लाइन कालोनी के निकट रिसदी के तालाब में नहाने गए तीन मासूम बच्चों की जल समाधि बन गई। खुशियों से भरे परिवारों में देखते ही देखते मातम में पसर गया। हर आंख नम, हर चेहरा गमगीन। पुलिस महल मे में सन्नाटा ऐसा कि सायरन की आवाज भी शोकगीत लग रही थी।

एसपी सिद्धार्थ तिवारी सहित वरिष्ठ अधिकारी घटनास्थल पर पहुंचे। परिवारों को ढांढस बंधाने की कोशिश हुई। साथी कर्मियों ने एक-दूसरे का हाथ थामा, सबके आंख नम, लेकिन इस गहरे जख्म पर कोई भी मरहम काम नहीं आया। शहर में जिसने सुना, उसका भी दिल दहल गया। लेकिन इस हादसे के बाद कि संवेदनहीनता ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया – हमारे जनप्रतिनिधि कहां थे? न कोई नेता मौके पर पहुंचा न जिला अस्पताल, सांसद को छोड़ न किसी ने शोक व्यक्त किया, न मृतकों के निवास पुलिस लाइन कालोनी पहुंचे। जिस VIP वर्ग की सुरक्षा में ये जवान दिन-रात खड़े रहते हैं, उनके दु:ख में सत्ता-विपक्ष का एक भी चेहरा शामिल नहीं हुआ। क्या संवेदनशीलता सिर्फ चुनावी मौसम तक ही सीमित रह गई है?

सोचिए, अगर यही त्रासदी किसी सियासी परिवार में घटती, तो क्या नजारा होता, काफिलों की भीड़, संवेदना जताने के नाम पर फोटो सेशन। लेकिन यहां सिर्फ सन्नाटा था, और उन सिसकियों की गूंज, जिन्हें सुनने वाला कोई नेता नहीं।
कोरबा का जनमानस, मीडिया इस दु:ख की घड़ी में पुलिस परिवार के साथ खड़ा है। हर दिल यही प्रार्थना कर रहा है कि ईश्वर इन परिवारों को इस असहनीय पीड़ा को सहने की शक्ति दे। लेकिन सवाल अब भी कायम है – क्या हमारी राजनीति में इंसानियत की कोई जगह बची है? या यह भी सत्ता के तराजू में तौल दी गई है? जिसने तीन मौतों के दर्द को भी कम आंका।

क्या संवेदनशीलता सिर्फ वोट तक सीमित है?

क्या तीन मासूमों की मौत इतनी मामूली है कि सत्ता के गलियारों से एक भी नेता को फुर्सत नहीं मिली? क्या ये वही जनता नहीं है, जिनके वोटों से वे कुर्सियों तक पहुंचे? जब वोट चाहिए होते हैं, तब दरवाजे- दरवाजे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। लेकिन जब परिवार उजड़ जाते हैं, तब संवेदनाएं कहां गायब हो जाती हैं? यहां तीन मासूमों के लिए सत्ता के चेहरे पर पड़ी नकली संवेदनशीलता की परत उतर गई। यह खामोशी सिर्फ शर्मनाक नहीं, बल्कि इंसानियत पर धब्बा है। क्या इंसानियत का भी राजनीतिक एजेंडा बन गया है?

पुलिसकर्मी वो लोग हैं, जो हर वक्त जनता और व्यवस्था के लिए खड़े रहते हैं। और आज, जब उनके घरों पर दु:ख का पहाड़ टूटा, तब सत्ता के ठेकेदारों का दिल क्यों नहीं पसीजा?

लंबे इंतजार में भरी थी गोद,मॉं हो गई बेहोश

यह हादसा तीन परिवारों की ऐसी खुशियां छीन गया जिसमें बड़ी मन्नतों और कोशिशें से संतान हुई थी। 13 वर्षीय आकाश लकड़ा अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। काफी वर्षों और लंबे इलाज के बाद जोलजस लकड़ा के घर उनकी धर्मपत्नी ने आकाश को जन्म दिया लेकिन जब प्रभु के विधान ने यह खुशी छीन ली तो मां रोते-रोते बेहोश हो गई। 12 वर्षीय प्रिंस जगत भी अपने माता-पिता की इकलौती संतान था जबकि एक अन्य मृतक युवराज सिंह ठाकुर अपने माता-पिता के दो संतानों में से छोटा पुत्र 9 वर्ष का था।ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मासूमों की आत्मा को शांति और परिवारों को सहने की शक्ति दे…..ओम शान्ति।

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